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|रचनाकार=मधु शर्मा
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}}
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<poem>
वह चाहती है
हटा देना पाट खिड़कियों के
मन के झरोखों के पार
फेंक दिए उसने सब आवरण
संकोच और अवकाश
देह से अवसान लिए
वह सट कर खड़ी है झरोखे से
अपने सब कुछ के होने से मुक्त
वह बस आने को है बाहर
इस देह से; यह काँच भी हटाती हुई।
</poem>
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वह चाहती है
हटा देना पाट खिड़कियों के
मन के झरोखों के पार
फेंक दिए उसने सब आवरण
संकोच और अवकाश
देह से अवसान लिए
वह सट कर खड़ी है झरोखे से
अपने सब कुछ के होने से मुक्त
वह बस आने को है बाहर
इस देह से; यह काँच भी हटाती हुई।
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