भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
झूठ फैलाने का है हथियार अब
ये हमारे दौर का अख़बार अब
वो डुबो देंगे हमें साहिल पे ही
जिनके हाथों सौंप दी पतवार अब
है नहीं शिद्दत<ref>दीवानगी</ref> कहीं अहसास में
इश्क़ बिकता है सरे-बाज़ार अब
देखिए सोए हैं चादर तानकर
साथ जनता के सभी फ़नकार<ref>कलाकार</ref> अब
गुल खिलाए आपका क्या बैडरुम
चाहती है जानना सरकार अब
इंक़लाब आएगा होगी इंतिहा<ref>अंत/पराकाष्ठा/हद</ref>
होगी सब के हाथ में तलवार अब
हम उजालों को उठा लाए ‘शलभ'
तीरगी<ref>अँधेरा</ref> भी हो गई लाचार अब
<poem>