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Kavita Kosh से
जो कराते मधुमिलन वे
पंथ सारे खो गये हैं
मत बहारों के मुझे
सपने दिखाओ
दीप सारे बुझ
चुके हैं मन्नतों के, आस्था हर प्रथा के
सिर्फ अब हैं तैर सकते
आँख में आँसू व्यथा के
तुम हृदय में अल्पनाएँ
मत सजाओ
पुण्य फल देगी कहाँ यह
प्रेम की यात्रा अधूरी
उम्र भर का शाप मत
हृद से लगाओ
अब नहीं मैं लौट पाऊँगा दुबारा
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