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Kavita Kosh से
<Poem>
एक लहर बहाकर ले जाती है
मुझे
साथ ही बहकर जाती है उदासी
कुंठाएँ
पाने और खोने की पीड़ा
वायलिन वादक की आँखों से टपकती संवेदना
हौले से
अपनी आँखों में समा लता हूँ
मेरे रोम-रोम में होती है
अजीब-सी सिहरन
यह कौन सी धुन है
जो मेरी आँखों से आँसू की बरसात
करवा देती है
मेरे भीतर घुमड़ती हुई घुटन
बर्फ़ की तरह पिघलने लगती है
मुझे याद है ऎसी ही किसी तान को
सुनते हुए
कभी भीड़ के बीच चुपचाप
रोता रहा था
कभी ऎसी ही तान को सुनकर
रात भर गुमसुम सा
जागता रहा था
मैं भूल जाता हूँ विषाद की खरोंचों को
दुनियादारी की तमाम विकृतियों को
एक लहर बहाकर ले जाती है
मुझे
मेरे भीतर समाता जाता है उल्लास
</poem>