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रात भर क्रंदन करती है एक स्त्री / दिनकर कुमार

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रात भर क्रंदन करती है एक स्त्री
रात भर
चाँदनी का मैलापन
समाया रहता है मेरी आँखों में
सपने में वैशाख
भूपेन हजारिका का गायन
बन जाता है
गुलमोहर के पेड़ के नीचे
सुर्ख़ लाल रंग का लिबास पहनकर
चित्रलेखा किसी की राह देखती है

रात भर क्रंदन करती है एक स्त्री
रात भर
शहर का पथरीला सीना
शांत रहता है
बंद रहती हैं खिड़कियाँ
खाँसते नहीं हैं बुजुर्ग
झाँकती नहीं हैं चाचियाँ-दादियाँ
रात भर एक घने जंगल में
सिहरता रहता हूँ मैं