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|रचनाकार=शकील बँदायूनी
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कोई आरज़ू नहीं है, कोई मु़द्दा नहीं है,<br>
तेरा ग़म रहे सलामत, मेरे दिल में क्या नहीं है ।<br>

कहां जाम-ए-ग़म की तल्ख़ी, कहां ज़िन्दगी का रोना,<br>
मुझे वो दवा मिली है, जो निरी दवा नहीं है ।<br>

तू बचाए लाख दामन, मेरा फिर भी है ये दावा,<br>
तेरे दिल में मैं ही मैं हंू, कोई दूसरा नहीं है ।<br>

तुम्हें कह दिया सितमगर, ये कुसूर था ज़बां का,<br>
मुझे तुम मुआफ़ कर दो, मेरा दिल बुरा नहीं है ।<br>

मुझे दोस्त कहने वाले, ज़रा दोस्ती निभा ले,<br>
ये मताल्बा है हक़ का, कोई इल्तिजा नहीं है ।<br>

ये उदास-उदास चेहरे, ये हसीं-हसीं तबस्सुम,<br>
तेरी अंजुमन में शायद, कोई आईना नहीं है ।<br>

मेरी आंख ने तुझे भी, बाख़ुदा ‘शकील‘ पाया,<br>
मैं समझ रहा था मुझसा, कोई दूसरा नहीं है ।<br>

तल्ख़ी: कड़वाहट,<br>
मताल्बा: सच्चाई,<br>
इल्तिजा: मुस्कान ।<br>
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