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Kavita Kosh से
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कस्बे के एक कमरे में
सुन रहा हूं हूँ मैं
दम तोड़ती बूढ़ी सर्दी की कराह
जबकि लोग बाहर
काली सड़कों पर गुजर गुज़र रहे हैं
‘दिल तो पागल है’ गाते हुए
कैसे करूँ इस बुढ़ापे का वर्णन
कोई नहीं सुनता माँ की बात
सारा परिवार
नई सदी का आगमन
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