भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बूढ़ी सदी का दर्द / मोहन साहिल
Kavita Kosh से
कस्बे के एक कमरे में
सुन रहा हूँ मैं
दम तोड़ती बूढ़ी सर्दी की कराह
जबकि लोग बाहर
काली सड़कों पर गुज़र रहे हैं
‘दिल तो पागल है’ गाते हुए
कैसे करूँ इस बुढ़ापे का वर्णन
याद करता हूँ
चारपाई पर लेटी माँ को
जिसने देखा मुझे बढ़ते हुए और
निरंतर बदलते हुए
उसे सुनाना है जीवन भर का दुख
अपनी औलाद को
वह देना चाहती है
नई सदी के लिए ज़रूरी अनुभव और संदेश
अपने सौ वर्ष का जीवनानुभव
कोई नहीं सुनता माँ की बात
सारा परिवार
टी०वी० पर देख रहा है
नई सदी का आगमन