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Kavita Kosh से
:::यों की 'पालागी' —
कण्ठ में ज्ञान संवेदन के,
आंसू का कांटा फंसा और
मन में यह आसमान छाया,
:चिड़िया डोली,
फर-फर आंचल तुमको निहार
मानो कि मातृ-भाषा बोली —
जिनसे गूंजा घर-आंगन
:ज्वालाओं से
माँओं का बहनों का सुहाग सिन्दूर हँसा बरसा-बरसा ।
इन भारतीय गृहिणी-निर्झरिणी-नदियों के
:घर-घर के भूखे प्राण हँसे ।
:लेकिन यह मेरे छन्द
बावरे बुरी तरह यों अकुलाकर,
बूढ़े पितृश्री के चरणों में लोट-पोटकर,
:ऐसी पावन धूल हुए —
बहना के हिय की तुलसी पर
घन छाया कर
:मंजरी हुए,
भाई के दिल में फूल हुए ।
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