जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध
पिछला पृष्ठ | पृष्ठ सारणी | अगला पृष्ठ >> |
जीवन के प्रखर समर्थक-से जब प्रश्न चिन्ह
बौखला उठे थे दुर्निवार,
तब एक समंदर के भीतर
रवि की उद्भासित छवियों का
गहरा निखार
स्वर्णिम लहरों सा झल्लाता
झलमला उठा;
मानो भीतर के सौ-सौ अंगारी उत्तर
सब एक साथ
बौखला उठे
तमतमा उठे !!
संघर्ष विचारों का लोहू
पीड़ित विवेक की शिरा-शिरा
में उठा गिरा,
मस्तिष्क तंतुओं में प्रदीप्त
वेदना यथार्थों की जागी !!
मेरे सुख-दुख ने अकस्मात् भावुकतावश
सुख-दुख के चरणों की
मन ही मन
यों की 'पालागी' —
कण्ठ में ज्ञान संवेदन के,
आंसू का कांटा फंसा और
मन में यह आसमान छाया,
जिस में जन-जन के घर-आंगन
का सूरज भासमान छाया
झुरमुर-झुरमुर वह नीम हँसा,
चिड़िया डोली,
फर-फर आंचल तुमको निहार
मानो कि मातृ-भाषा बोली —
जिनसे गूंजा घर-आंगन
खनके मानों बहुओं की चूड़ी के कंगन ।
मैं जिस दुनिया में आज बसा,
जन-संघर्षों की राहों पर
ज्वालाओं से
माँओं का बहनों का सुहाग सिन्दूर हँसा बरसा-बरसा ।
इन भारतीय गृहिणी-निर्झरिणी-नदियों के
घर-घर के भूखे प्राण हँसे ।
दिल के आंसू के फव्वारे
लेकिन यह मेरे छन्द
बावरे बुरी तरह यों अकुलाकर,
बूढ़े पितृश्री के चरणों में लोट-पोटकर,
ऐसी पावन धूल हुए —
बहना के हिय की तुलसी पर
घन छाया कर
मंजरी हुए,
भाई के दिल में फूल हुए ।