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11:20, 6 जुलाई 2006 लेखक: [[जयशंकर प्रसाद]]
[[Category: जयशंकर प्रसाद]]
बीती विभावरी जाग री!<br>
अम्बर पनघट में डुबो रही<br>
तारा घट ऊषा नागरी।<br><br>
खग कुल-कुल सा बोल रहा,<br>
किसलय का अंचल डोल रहा,<br>
लो यह लतिका भी भर लाई<br>
मधु मुकुल नवल रस गागरी।<br><br>
अधरों में राग अमंद पिये,<br>
अलकों में मलयज बंद किये<br>
तू अब तक सोई है आली<br>
आँखों में भरे विहाग री।<br><br>