भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
निकले है जी उसी के लिए, कायनात का
बिखरे है हैं जुल्फ, उस रूख-ए-आलम फरोज पर
वर्न:, बनाव होवे न दिन और रात का
उसके फरोग-ए-हुस्न से, झमके है सब में नूर
क्या मीर तुझ को नाम: सियाही की फिक्र है
खत्म-ए-रूसुल सा शख्स है, जामिन नजात का