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17:20, 16 जून 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
}}
<poem>
'''बाँधा कितना निकट'''
बाँधा कितना निकट
नहीं पर साथ
तले जो
मन-मंडप के
दिवस औ’ रात
सदा
शोभित रहते हैं।
: भर-भर
: कितना
: अंतर्मन
: मथ-मथ कर
: अंतस्
: काटेंगे
: निज-पल
: निशि-नींदें
: दिवा-रात्रि
: पी-पी
: गरलामृत
:रहें सचेतन
:: करुणाश्रित
:: परिवर्तन।
परम
गति-प्रतीक
चिंतानल
कर समक्ष
वह अग्नि-शिखा
उन्मुक्त
बँधी
नद-धार
एकाकी क्षण के
हत-उत्तरीय से।
::चटकी
::घन-उर में
:::तड़ित
::साँझ के सूनेपन में,
::बरसी
::कानन में फुहार,
::गिरि-शिखरों के
::साथी गह्वर में।
पाषाणों पर पड़ती
बूँदें
उमड़ें
छलकें,
मन-मसोस बैठे
केंद्रित
तन्मय हो।
::देखें
::बंधन की पिपास के
::नव-नित सर्जन।
आर्द्र कंठ में
प्यास जगाई
पीड़ानल ने,
पलक मूँद,
काजल पीते हैं
रस-निर्झर का
विरस क्षणों में।
</poem>