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16:24, 5 अक्टूबर 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=आरज़ू लखनवी
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<poem>
भले दिन आये तो आज़ार बन गया आराम।
क़फ़स के तिनके भी काम आ गए नशेमन के॥
मिटा के फिर तो बनाने पर अब नहीं काबू।
वो सर झुकाए खड़े है, क़रीब मदफ़न के॥
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