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{{KKRachna
|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
|संग्रह=उन हाथों से परिचित हूँ मैं / शलभ श्रीराम सिंह
}}
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<poem>
यहाँ
परिन्दों से छीना जा रहा है
आकाश
वनस्पतियों से
हरियाली छीनी जा रही है यहाँ
छीना जा रहा है नदियों से उनका प्रवाह
पानी के विद्रोह का समय समीप है
समीप है समय वनस्पतियों की बगावत का
पृथ्वी से मोहभंग का समय समीप है अब
</poem>
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|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
|संग्रह=उन हाथों से परिचित हूँ मैं / शलभ श्रीराम सिंह
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यहाँ
परिन्दों से छीना जा रहा है
आकाश
वनस्पतियों से
हरियाली छीनी जा रही है यहाँ
छीना जा रहा है नदियों से उनका प्रवाह
पानी के विद्रोह का समय समीप है
समीप है समय वनस्पतियों की बगावत का
पृथ्वी से मोहभंग का समय समीप है अब
</poem>