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:::(४८)
रति-अनंग-शासित धरणी यह,
::ठहर पथिक, मधु रस पी ले;
इन फूलों की छाँह जुड़ा ले,
::कर ले शुष्क अधर गीले;
आज सुमन-मण्डप में सोकर
::परदेशी! निज श्रान्ति मिटा;
चरण थके होंगे, तेरे पथ
::बड़े अगम, ऊँचे-टीले।
:::(४९)
कुसुम-कुसुम में प्रखर वेदना,
::नयन-अधर में शाप यहाँ,
चन्दन में कामना-वह्नि, विधु
::में चुम्बन का ताप यहाँ।
उर-उर में बंकिम धनु, दृग-दृग
::में फूलों के कुटिल विशिख;
यह पीड़ा मधुमयी, मनुज
::बिंधता आ अपने-आप यहाँ।
 
:::(५०)
यहाँ लता मिलती तरु से
::मधु कलियाँ हमें पिलाती हैं,
पीती ही रहतीं यौवन-रस,
::आँखें नहीं अघाती हैं।
कर्मभूमि के थके श्रमिक को
::इस निकुंज की मधुबाला
एक घूँट में श्रान्ति मिटाकर
::बेसुध, मत्त बनाती है।
 
:::(५१)
यात्री हूँ अति दूर देश का,
::पल-भर यहाँ ठहर जाऊँ,
थका हुआ हूँ, सुन्दरता के
::साथ बैठ मन बहलाऊँ;
’एक घूँट बस और’--हाय रे,
::ममता छोड़ चलूँ कैसे?
दूर देश जाना है, लेकिन,
::यह सुख रोज कहाँ पाऊँ?
 
:::(५२)
’दूर-देश’--हाँ ठीक, याद है,
::यह तो मेरा देश नहीं;
इससे होकर चलो, यहीं तक
::रुकने का आदेश नहीं।
बजा शंख, कारवाँ चला,
::साकी, दे विदा, चलूँ मैं भी,
कभी-कभी हम गिन पाते हैं
::प्रिये! मीन औ’ मेष नहीं।
</poem>
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