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|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
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<poem>
साधिहैं समाधि औ अराधिहैं सबै जो कहौ
::आधि-व्याधि सकल स-साध सहि लैहैं हम ।
कहै रतनाकर पै प्रेम-प्रन-पालन कौ
::नेम यह निपट सछेम निरबैहैं हम ॥
जैहैं प्रान-पट लै सरूप मनमोहन कौ
::तातें ब्रह्म रावरे अनूप कौम मिलैंहैं हम ।,
जौंपे मिल्यौ तौ धाइ चाय सौं मिलैगी पर
::जौ न मिल्यौ तो पुनि इहाँ ही लौटि एहैं हम ॥63॥
</poem>
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