भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साधिहैं समाधि औ’ अराधिहैं सबै जो कहो / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साधिहैं समाधि औ अराधिहैं सबै जो कहौ
आधि-व्याधि सकल स-साध सहि लैहैं हम ।
कहै रतनाकर पै प्रेम-प्रन-पालन कौ
नेम यह निपट सछेम निरबैहैं हम ॥
जैहैं प्रान-पट लै सरूप मनमोहन कौ
तातें ब्रह्म रावरे अनूप कौम मिलैंहैं हम ।,
जौंपे मिल्यौ तौ धाइ चाय सौं मिलैगी पर
जौ न मिल्यौ तो पुनि इहाँ ही लौटि एहैं हम ॥63॥