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{{KKRachna
|रचनाकार=मजरूह सुल्तानपुरी
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[[Category:ग़ज़ल]]<poem>
कोई हमदम न रहा, कोई सहारा न रहा
हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा

शाम तन्हाई की है आयेगी मंजिल कैसे
जो मुझे राह दिखा दे वही तारा न रहा

ए नजारों न हँसो मिल न सकूंगा तुमसे
वो मेरे हो न सके मै भी तुम्हारा न रहा

क्या बताऊँ मैं किधर यूँ ही चला जाता हूँ
जो मुझे फिर से बुला ले वो इशारा न रहा
</poem>