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|रचनाकार=ओम पुरोहित ‘कागद’
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<Poem>
मैं मानता हूं
तुम बहुत निराश हो
इस जग में जीत हुए
तुम्हें नहीं मिला कोई ऐसा
जो दे सके जगह अपने दिल में ।

मैं यह थी नही मानता हूं
तुम बड़ी आशा से
आए हो मेरे पास
क्योंकि तुम जानते हो
मैं तुम्हारे सामने
हो जाता हूं निरुतर ।

लेकिन
मेरे दोस्त
आज मैं
तुम्हारी बात नहीं मान सकता
नहीं दे सकता
उस दिल में जगह
जिस में रहता है
दुनिया भर का दर्द ।

तुम मेरे लिए
दर्द नहीं हो
सकून हो इस लिए
दिल में नहीं
रू-ब-रू रहो।
</poem>
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