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पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,

या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?


::जब मुझे इंसान का चोला मिला है,

::भार को स्‍वीकार करनर शान मेरी,

:::रीढ़ मेरी आज भी सीधी तनी है,

:::सख्‍़त पिंडी औ' कसी है रान मेरी,

::::किंतु दिल कोमल मिला है, क्‍या करूँ मैं,

::::देख छाया कशमकश में पड़ गया हूँ, सोचता हूँ,

::::पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,

::::या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?


कौन-सी ज्‍वाला हृदय में जल रही है

जो हरी पूर्वा-दरी मन मोहती है,

::किस उपेक्षा को भुलने के लिए हर

::फून-कलिका बाट मेरी जोहती है,

:::किसलयों पर सोहती हैं किसलिए बूँदें

:::कि अपने आँसुओं को देखकर मैं मुसकराऊँ,

::::क्‍या लताएँ इसलिए ही झुक गई हैं,

::::हाथ इनका थमकर मैं बैठ जाऊँ?

::::पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,

::::या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?


किंतु कैसे भूल जाऊँ सामने यह

भार बन साकार देती है चुनौती,

::जिस तरह का और जिस तादाद में है,

::मैं समझता हूँ इसे अपनी बपौती।

:::फ़र्ज मेरा, ले इसे चलना, जहाँ दम

:::टूट जाए, छोड़ना मज़बूत कंधों, पंजरों पर;

::::जो मुझे पुरु़षत्‍व पुरखों से मिला है,

::::सौ मुझे धिक्‍कार, जो उसको लजाऊँ।

::::पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,

::::या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?


वे मुझे बीमार लगते हैं निकुंजों

जो पड़े राग अपना मिनमिनाते,

::गीत गाने के लिए जो जी रहे हैं-

::काश जीने के लिए वे गीत गाते-

:::और वे पशु, जो कि परबस मौन रहकर

:::बोझ ढोते, नित्‍य मेरे कंठ में स्‍वर, भार सिरपर

::::हो कि जिससे गीत में मैं भार-हल्‍का,

::::भार से संगीत को भारी बनाऊँ।

::::पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,

::::या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
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