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पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ / हरिवंशराय बच्चन
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पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
- जब मुझे इंसान का चोला मिला है,
- भार को स्वीकार करनर शान मेरी,
- रीढ़ मेरी आज भी सीधी तनी है,
- सख़्त पिंडी औ' कसी है रान मेरी,
- किंतु दिल कोमल मिला है, क्या करूँ मैं,
- देख छाया कशमकश में पड़ गया हूँ, सोचता हूँ,
- पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
- या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
कौन-सी ज्वाला हृदय में जल रही है
जो हरी पूर्वा-दरी मन मोहती है,
- किस उपेक्षा को भुलने के लिए हर
- फून-कलिका बाट मेरी जोहती है,
- किसलयों पर सोहती हैं किसलिए बूँदें
- कि अपने आँसुओं को देखकर मैं मुसकराऊँ,
- क्या लताएँ इसलिए ही झुक गई हैं,
- हाथ इनका थमकर मैं बैठ जाऊँ?
- पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
- या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
किंतु कैसे भूल जाऊँ सामने यह
भार बन साकार देती है चुनौती,
- जिस तरह का और जिस तादाद में है,
- मैं समझता हूँ इसे अपनी बपौती।
- फ़र्ज मेरा, ले इसे चलना, जहाँ दम
- टूट जाए, छोड़ना मज़बूत कंधों, पंजरों पर;
- जो मुझे पुरु़षत्व पुरखों से मिला है,
- सौ मुझे धिक्कार, जो उसको लजाऊँ।
- पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
- या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
वे मुझे बीमार लगते हैं निकुंजों
जो पड़े राग अपना मिनमिनाते,
- गीत गाने के लिए जो जी रहे हैं-
- काश जीने के लिए वे गीत गाते-
- और वे पशु, जो कि परबस मौन रहकर
- बोझ ढोते, नित्य मेरे कंठ में स्वर, भार सिरपर
- हो कि जिससे गीत में मैं भार-हल्का,
- भार से संगीत को भारी बनाऊँ।
- पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
- या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?