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13:11, 6 दिसम्बर 2010 <poem>बड़ा अजीब सा मंजर दिखाई देता है।
तमाम शहर ही खंडहर दिखाई देता है।
जहाँ, उगाई थी हमने फसल मुहब्बत की,
वो खेत आज तो बंजर दिखाई देता है।
जो मुक्षको कहता था अक्सर कि आइना हो जा,
उसी के हाथ में पत्थर दिखाई देता है।
हमें यह डर है किनारें भी बह न जायें कहीं,
अजब जुनूँ में समन्दर दिखाई देता है।
अजीब बात है, जंगल भी आजकल यारो,
तुम्हारी बस्ती से बेहतर दिखाई देता है।
न जाने कितनी ही नदियों को पी गया फिर भी,
युगों का प्यासा समन्दर दिखाई देता है।
वो जर्द चेहरों पे जो चाँदनी सजाता है,
मुक्षे खुदा से भी बढ़कर दिखाई देता है।
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