(राग शंकरा-ताल कहरवा)
श्रीमहेशकी अन्गकान्ति अति सुन्दर चपक-वर्ण-समान।
श्रीमुख एक, त्रिलोचन शोभित, मुखपर खेल रही मुसकान॥
रत्न-स्वर्ण-आभूषण-भूषित शोभित गले मालती हार।
मुकुट मनोहर सद्रत्नोंका करता उज्ज्वलता विस्तार॥
कबुकण्ठमें वक्षःस्थलपर रहे आभरण विविध विराज।
जो अपनी उज्ज्वल आभासे बढ़ा रहे आनन्द-समाज॥
घुटनोंतक लंबी अति सुंदर शोभन शिवकी भुजा विशाल।
सुन्दर वलय मनोहर अन्गद आदिकसे शोभित सब काल॥
अग्रितप्त, अतिशुद्ध, सूक्ष्म अति, अनुपम, अति विचित्र मनहर।
वस्त्र और उपवस्त्र सुशोभित शुचि, अमूल्य श्रीशिव-तनपर॥
चन्दन-अगरु चारु कुंकुम-कस्तूरी-भूषित अन्ग सकल।
दर्पणरत्न सुमण्डित करमें, आँखें कजरारी उज्ज्वल॥
अपनी दिव्य प्रभासे सबका आच्छादित कर रहे प्रकाश।
अति सुमनोहर रूप, तरुण अति सुन्दर वयका किये विकास॥
सभी विभूषित अङङ्गोंसे भूषित भव नित्य परम रमणीय।
सती-शिरोमणि गिरिवर-नन्दिनिके प्रियतम सुकान्त कमनीय॥
सदा शान्त अव्यग्र मुखाबुज कोटि शशिधरोंसे सुन्दर।
सर्व अन्ग सुन्दर तनुकी छबि कोटि मनोजोंसे बढक़र॥
इस प्रकार एकान्त चिासे जो करते श्रीशिवका ध्यान।
उनको निज स्वरूप दे देते आशुतोष शंकर भगवान्॥