Last modified on 3 अप्रैल 2020, at 23:28

समस्याएँ श्वांस को कसने लगी हैं / रंजना वर्मा

समस्याएँ श्वांस को कसने लगी हैं।
जिंदगी को नाग बन डँसने लगी है॥

हलचलों से पूर्ण थे जो पंथ राहें
अब वहीं वीरानियाँ हँसने लगी हैं॥

घोंट इच्छा का गला दंडित हुए तो
विषमताएँ कंठ को कसने लगी हैं॥

जाल डाले हैं पड़े कितने शिकारी
जिंदगी मृग शिशु सदृश फँसने लगी है॥

नींद नैनो मध्य बसनी चाहिए पर
अब निराशा ही वहाँ बसने लगी है॥

एक रावण से धरा यह डोलती थी
किंतु हर पग भूमि अब धँसने लगी है॥

दर्द का खारा समंदर है नयन में
आँख यों दिन रात अब रिसने लगी है॥