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सुरति-दुःखिता / रस प्रबोध / रसलीन

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बक्रोक्तिगर्विता-वर्णन

अन्य सुरति दुखिता बहुरि तीन गर्विता आनि।
और मानिनी नेम बिनु सकल तियन मैं जानि॥327॥
पराचीन मत माहि ये भेद लखे नहिं जात।
करîौ नवीनन काटि कै यह विध सो अवदात॥328॥
अन्य सुरति दुखिता कहीं खँडिता ते यह जानु।
स्वाधिनपतिका ते कढ़ो भेद गर्विता भानु॥329॥
मानिनि को कढ़ि मानतें तिहूँ भेद तब लाइ।
अष्ट नाइका भेद तें भिन्न दियो ठहराइ॥330॥
जदपि धरे नहिं जात पै अष्टनायिका माँहि।
तऊ अवस्था भेद तें सकल भिन्न ह्वै जाहिं॥331॥
जब नबीन मत पै भयौ तिहूँ भेद अविदात।
ग्यारह सै बावन तियन माह गने नहिं जात॥332॥

अन्यसुरतिदुखिता-लक्षण

निज पति रति को चिन्ह जो लखै और तिय अंग।
अन्य सुरति दुखिता सोई जेहि दुख बढ़ै अनंग॥333॥
पिय तन लखि रति चिन्ह जो दुखित खंडिता होइ।
ज्यौं यहि दुख पिय सुरति छत और बाल तन जोइ॥334॥
इहै भेद इनि दुहुन मैं जानत है कवि जान।
जातरु पिय औगुननिते दुखी दोउ पहिचान॥335॥

अन्यसुरतिदुखिता-उदाहरण

तेरे पास प्रकास बर नेह बास सरसाइ।
मो कारन ल्याई नहीं आयो आपु लगाइ॥336॥
गई बाग कहि जाति हौं तुव हित लैन रसाल।
सो नहि ल्याई आपुही छकि आई है बाल॥337॥
काह कहौं तोसों अली अपने अपने भाग।
मोहि दियो तन कनक बिधि दीनों तोहि सुहाग॥338॥

गर्बिता-लक्षण

गरब न उपजत है तियहि जौं लौं नहिं बस नाह।
या ते गरबित को भवन स्वाधिनपतिका माह॥339॥
बात कहै जो गरब को सोइ गरबिता जानि।
बरने पति आधीनता स्वाधीनपतिका मानि॥340॥
सोइ गरबिता उभय विधि बरनत हैं कवि लोइ।
बक्रोकति है एक पुनि दुतिय सुगरबित होइ॥341॥

बक्रोक्ति गर्बिता-उदाहरण

पिय मूरति मेरी सदा राखत दृगन बसाइ।
डरियत गोरी देह यह मति सौंरी... परि जाइ॥342॥

सुधि-प्रेमगर्बिता

मो पिय चख पक्षी नहीं जो जल जल पै जाहि।
मीन रूप तामें परे सदा रहै तेहि माहि॥343॥
मोहि भूषन की भूख नहिं बृजभूषन को प्यार।
मन सों रहो सिंगार करि तन सोरहो सिंगार॥344॥

वक्रोक्ति रूपगर्बिता

जोबन लहि ई रूप ढिग अद्भुत गति यह कीन।
आपु जगत को मारि कै मो सिर हत्या दीन॥345॥

सुच्छरूपगर्बिता

जो दृग कमलन दुखित नहिं मेरे रूप सुजान।
तो मो आनन जनि कही सरसिज सत्र समान॥346॥
हौं न सहोंगी बात अब तों सो कहति निसंक।
मेरे मुख को चंद कहि लावत लाल कलंक॥347॥

बक्रोक्ति गुनगर्बिता

मो पै गुन कछुए नहीं ऐसो तैं हित पाइ।
अपनी बारीहूँ पियहि मो घर जाति पठाइ॥348॥

सुच्छ गुनगर्बिता

तौ प्रवीन जो छीन कै सौतिन सो रसलीन।
झीन तार जो बीन कै करौं बाँधि आधीन॥349॥
को चतुराई जो न हौं एक कला मैं जीति।
आजु लालु मनको करी हाथ छाल की रीति॥350॥

मानिनि-लक्षण

पिय सो कछु अपराध तकि तिय उदास जो होइ।
ताहि मानिनी कहत हैं सब पंडित कवि लोइ॥351॥
तीनि भाँति पिय सो करै मानिनि कोप प्रकास।
मुख परि कै पीछे किधौं चुप ह्वै रहै उदास॥352॥
मुख पर कहै सो खंडिता पीछे अन्य सँभोग।
और तीसरी मानिनी जहाँ मौन परयोग॥353॥

मानिनी-उदाहरण

पिय अपराध न जानियत को जानै किहि काज।
बैठी भौंह चढ़ाइ कै ग्रीव नबाये आज॥354॥

अवस्था भेद से
अष्ट नायिका कथन

जेहि गुन पिय आधीन है स्वाधिनपतिका नाम।
पिय आवन दिन तन सजै बासकसज्या बाम॥355॥
कौनहु हेतु न आवही पीतम जाके गेह।
ताको सोचु करै हियै उत्कंठित सो एह॥356॥
करै चलन चरचा चले पहुचे लौं पिय पास।
बोलि पठावै सिख सुनै अभिसारिका प्रकास॥357॥
सँजि सिंगार जौं जाइ तिय ललन मिलन के हेत।
बिन पिय भेटै रिस करै विप्रलब्ध तेहि चेत॥358॥
पर रति चिह्नित पिय चितै बलि खंडिता रिसाइ।
कलहन्तरिता कलह करि फिरि पीछे पछिताइ॥359॥
प्रोषितपतिका जाहि पिय गयौ होइ परदेस।
गमषित जेहि दिन कतिकमैं चलन चहै प्रानेस॥360॥
गछितपतिका जाहि पिय चलन मसै में होइ।
पतिया सगुन संदेस लखि आगमपतिका जोइ॥361॥
आइ मिलै जो विदेस तें आगतपतिका जानु।
बिछुरे पति आयो सुन्यौ अगछित पतिका मानु॥362॥
है अरु होनो ह्वै चुक्यो बिरह जो तीनि प्रमानु॥
पकै करि सब को गनै अष्ट नायका जानु॥363॥
उचित न इन नारीनु मैं मुग्धा बरनन ल्याइ।
ये विश्रब्ध नवोढ़ गुन दीनो है ठहराइ॥364॥
सातों पतिकादिकन मैं मुग्धाऊ पुनि होति।
पै बिन चाह निति दुहुन के रस की होइ न जोति॥365॥

स्वाधीनपतिका में
मुग्धा स्वाधीनपतिका

रूप न आयौ है कछू जो धन करिहौ हाथ।
अबहीं ते चाकर भये कहाँ डोलियत नाथ।366॥
ज्यौं ज्यौं लालन प्रेम बस सँग न तजत दिन राति।
त्यौ त्यौ लाज समुद्र मैं तिय बूड़ति सी जाति॥367॥

मध्या स्वाधीनपतिका

पिय पग धोवत भावती कौतुक करति बनाइ।
खिनिक झवावति पाइ खिनि खैंचि लेति सकुचाइ॥368॥
निरखि निरखि प्रति दिवस निसि पिय चख तिय मुख ओरि।
कमल जानि अलि होत हैं ससि अनुमानि चकोरि॥369॥
निकसत ही पीछें परत आवत आगे होत।
रविग्रह सनमुख छाह लौं तुव प्रिय प्रकृत उदोत॥370॥
ज्यौं ज्यौं पिय चित चाय सों देत महाउर पाइ।
त्यौ त्यौं पिय अति रीझि कै नैनन मैं मुसुकाइ॥371॥

परकीया-स्वाधीनपतिका

यौं ही लाज न खोइये फिरि फिरि मेरे साथ।
परकीया आवति कहूँ घात परेही हाथ॥372॥
मो मन पक्षी प्रीति गुन बाँधि रह्यौ है नाथ।
जो उदास ह्वै उड़त है तौ फिरि ल्यावत हाथ॥373॥

सामान्या-स्वाधीनपतिका

किती रूप अरु गुनभरी कत मोही को लाल।
कंकन दै कर गहत है हिय लावत दै माल॥374॥

मुग्धा-बासकसज्जा

इक भूषन सखि सजति है पिय को आगम जानि।
दूजे नवला स्वेद ते निजतन राचति आनि॥375॥
सौति हार तकि नवल तिय मिस गस को ठहराइ।
पिय आवत गुन मुकुत को गूँदति माल बनाइ॥376॥

मध्या-वासकसज्जा

लाल मिलन गुनि तन सजति बाल बदन की जोति।
खिनिक कमल सी मलिन खिनि अमल चंद सी होति॥377॥
बदन जोति भूषनन पर चख चकचौधति बाल।
मोहि सोचु यह अंग तुव कैसे लखि हैं लाल॥378॥
तिय पिय सेज बिछाइ यौं रही बाट पिय हेरि।
खेत बुवाइ किसान ज्यौं रहे मेघ अवसेरि॥379॥

परकीया-वासकसज्जा

दिन अन्हाइ साजै बसन मीत मिलन सुख पाइ।
निसि दिव रानी संग ले द्वारे पौढ़ी जाइ॥380॥

सामान्या-वासकसज्जा

लखसिख करति सिंगार तन धनी आइबो जानि।
अंग अंग साजति सिलरु सुभट जुद्ध अनुमानि॥381॥

मुग्धा-उत्कंठिता

खेलन बैठी सखिन सँग नवल बधू चित लाइ।
पिय बिनु आये सोचु मैं खेल भूलि सब जाइ॥382॥
लालन आयौ बाल सों कह्यौ न लाजन जाइ।
खुल्यौ कुमुद सों हिय गयौ मुँद सरोज के भाइ॥383॥

मध्या-उत्कंठिता

आवन कहि आयो न पिय गई जाम जुग राति।
सोच सँकोचन मैं परी खरी बाल बिललाति॥384॥
पिय नहिं आये यह व्यथा रही जु बाल दुराइ।
मुँदी नेह की बासु लौं मुख पै प्रगट दिखाइ॥385॥

प्रौढ़ा-उत्कंठिता

सखी कह्यौ जिय साजि कै आजु न आयो नाह।
ग्रह भूले खग लौं फिरे मो मन सोचन माह॥386॥

परकीया-उत्कंठिता

थल बताइ आयो न पिय यहै सोचु जिय लाइ।
पिंजर पंछी लौं तिया कुंज माँहि बिललाइ॥387॥

सामान्य-उत्कंठिता

पिय नहीं आयो अवधि बदि नैन रहे मग जोइ।
औरन के ग्रह जान की दई बेर सब खोइ॥388॥

मुग्धा-अभिसारिका

नैन चकोरन चंद्रिका प्यारी आज निसंक।
आस पास आवत नखत लीन्हे बीच ससंक॥389॥
चलि ये नवला बदन ते नाम तिहारे लाल।
हाँसी बातन मैं कहूँ हाँसी निकसति हाल॥390॥

मध्याभिसारिका-उदाहरण

ऐसे कामिनि लाज ते पिय पै अठकति जाइ।
जैसे सरिता को सलिल पवन सामुहे पाइ॥391॥

प्रौढ़ाभिसारिका

दुहुँ दिसि कचकुच भार तें झुकति जाति यौं बाल।
मानौ आसव ते छकी चली छकावत लाल॥392॥

परकीया अभिसारिका

यौं ऐंचति पग मग धरति उरझे उरुग अधीर।
ज्यौ मदमत्त मतंग छुटि खैंचे जात जंजीर॥393॥

कृष्णाभिसारिका

पिय के रंग भये बिना मिलन होत नहिं बाम।
याते तूँ रँग स्याम ह्वै मिलन चली है स्याम॥394॥
अंग छुपावति सुरति सों चली जाति जो नारि।
खोलत बिज्जुछटा चितै ढाँपति घटा निहारि॥395॥

(शुक्ला) जोतिऽभिसारिका

सजे सेत भूषन बसन जोन्ह माहि न लखाइ।
पट उघटत खिन बदन दुति चमक द्वैज सी जाइ॥396॥
सेत बसन जुति जोन्ह मैं यौं तिय दुति दरसाति।
मनौ चली छीरधिसुता छीर सिन्धु मैं जाति॥397॥

दिवाभिसारिका

पहिरि दुपहरी अरुन पट चली सोचि...जिय नाहिं।
नैकु न जानी परति तिय फूली किंसुक माहिं॥398॥

सामान्याभिसारिका

चली बार तीय मीत पै जेहि धन हत लुभाइ।
सो तन छबि तें छकि रह्यौ अभरन ह्वै लपटाइ॥399॥

मुग्धा विप्रलब्धा

सखिन संग नवला गई पिय को मिलन सँकेत।
अरुन कमल सो मुख भयो दिन हिम संक समेत॥400॥

मध्या विप्रलब्धा

लख्यौ न पिय गति भवन मैं तब सखि सौ समुहाइ।
बैनन मैं अनखाइ तिय नैनन रही लजाइ॥401॥

प्रौढ़ा विप्रलब्धा

लखि सँकेत सूनो रही यौं तिय सारि नवाइ।
मनौ विनय सिव की करै सबल काम को पाइ॥402॥

परकीया विप्रलब्धा

जो सँग लै कुंजन गई बाल मालती फूल।
मधुप मिले बिनु ह्वै गये सो गुड़हर के तूल॥403॥

सामान्या विप्रलब्धा

निज घर आयौ रसिक तजि गई जेहि धनि चाइ।
सो न मिल्यौ यौंही गयौ धन मेरे कर आइ॥404॥

मुग्धा खंडिता

सखिन सिखाये नित कह्यौ लखि जावक पिय भाल।
ताही के घर जाइये जेहि पग लागे लाल॥405॥

मध्या खंडिता

पिय तन नख लखि जो करत तिय बेदन अविदात।
कछू खुलनि कछु नहिं खुलति तू तुरकी सी बात॥406॥

प्रौढ़ा खंडिता

लाल तिहारे भाल को जावक पावक नैन।
जिनि मेरे मन मैन कौ जारि दियो ज्यौ मैन॥407॥

परकीया खंडिता

मीन नहीं यह पेखियत जिनि जिमि लागी दागि।
दृगन रावरे की लला पलकन लागी आगि॥408॥
जो कछु कहियत ठीक धरि सब ही होत अलीक।
मिटिगै अंजन लीक सो नेम निरंजन लीक॥409॥
पीक रावरे दृगन की कहे देति यहि ठौर।
मोसे नैन लगाइ तुम नैन लगाये और॥410॥

सामान्य खंडिता

जान्यौ बिन गुन माल कौं माल ठाम लखि कंत।
मो मन मानिक लै दयो मन मानिक तुव अंत॥411॥

मुग्धा कलहन्तरिता

लाल बिनै मानी न तिय अब मन मैं पछिताइ।
विपुल मध्य को दुख तनिक मुख पै होत ललाइ॥412॥

मध्या कलहन्तरिता

पिय बिनती करि फिरि गये सो कलेस सरसाइ।
तिय मुख अंबुज तें निकसि मधुप रीति दुरि जाइ॥413॥

प्रौढ़ा कलहंतरिता

जिय नहि आन्यौ पिय बचन नाहक ठान्यौ रोसु।
अमृत तजि बिष मैं पियो देउँ कौन कों दोसु॥414॥
तब न लखौ पिय बदन ससि कीन्हौं कोटि प्रकार।
अब अलि नैन चकोर ये लीलत फिरत अंगार॥415॥

परकया कलहंतरिता

जाहि मीत हित पति तज्यौ तज्यो ताहि जिहि हेत।
सो यह कोपहु तजि गयौ करि हिय विपति निकेत॥416॥
अली मान अहि के डसे झारîौ हरि करि नेह।
तऊ क्रोध बिष ना छुट्यौ अब छूटति है देह॥417॥

सामान्या कलहंतरिता

जाके मिलत मिटी सकल हुती साध जो प्रान।
ताकी बात सुनी न मैं नेह तूल दै कान॥418॥

मुग्धा प्रोषितपतिका

पिय बिछुरन दुख नवल तिय मुख सों कहति लजाइ।
बदन मुँदे नलनीर के जल सम रुके बनाइ॥419॥

मध्या प्रोषितपतिका

पिय बिनु तिय दृग जल निकसि यौं पुतरीन बिलात।
ज्यौं कमलन तें रस झरत मधुकर पीवत जात॥420॥
तिय उसास पिय बिरह ते उससि अधर लौं आइ।
कछु बाहर निकसत कछुक भीतर कों फिरि जाइ॥421॥

प्रौढ़ा प्रोषितपतिका

निसि जगाइ प्रातहिं चलत प्रान मजूरी हाल।
अंग नगर मैं बिरह यह भयो नयो कुतबाल॥422॥
निसि दिन बरखत रहत हूँ तँह कहुँ घटन न सूल।
नैन नीर हिय अगनि कौ भयो घीव के तूल॥423॥

परकीया प्रोषितपतिका

रकत बूँद काजर भरयौ रोवति यौं डरि बाल।
मनौ निसानी वा दृगन दई गुंज की माल॥424॥

सामान्या प्रोषितपतिका

जो सिंगार तन करति नित धन के हित सुकुमारि।
धनी बिरह ते होत सो अँग अँग माँहि अँगार॥425॥
व्यथा धनी सो कहन कों निज गुन पथिक लुभाइ।
रोइ जनावै नेह तिय नेह दृगन में लाइ॥426॥