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स्त्रियाँ / विमलेश त्रिपाठी

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एक

इतिहास के जौहर से बच गयी स्त्रियाँ
महानगर की आवारा गलियों में भटक रही थीं
उदास खुशबू की गठरी लिये
उनकी अधेड़ आँखों में दिख रहा था
अतीत की बीमार रातों का भय
अपनी पहचान से बचती हुई स्त्रियाँ
वर्तमान में अपने लिए
सुरक्षित जगह की तलाश कर रही थी

 
दो

पुरुषों की नंगी छातियों में दुबकी स्त्रियाँ
जली रोटियों की कड़वाहट के दुःस्वप्न से
बेतरह डरी हुई थीं
उनके ममत्व पर
पुरुषों के जनने का असंख्य दबाव था
स्याह रातों में किवाड़ों के भीतर
अपने एकान्त में
वे चुपचाप सिसक रही थीं सुबह के इन्तजार में

 

तीन

स्त्रियाँ इल्जाम नहीं लगा रही थीं
कह रही थीं वही बातें
जो बिल्कुल सच थी उनकी नजर में
और अपने कहे हुए एक-एक शब्द पर
वे मुक्त हो रही थीं
इस तरह इतिहास की अन्धी सुरंगों के बाहर
वे मनुष्य बनने की कठिन यात्रा कर रही थीं