Last modified on 11 जुलाई 2016, at 09:26

हम नदी होते / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र

हम नदी होते
तो बहते सिंधु तक
 
दूर तक फैले वनों से
हम गुज़रते
पर्वतों की गोद में
चढ़ते-उतरते
 
देखते हम नीर सूरज को उचक
 
पास से पगडंडियों के
या निकलते
हमें मिलते कभी
रेगिस्तान जलते
 
हम बुझाते प्यास की उनकी कसक
 
वक्त की देते गवाही
धूप बनकर
उन्हें भी हम तारते
जो रहे बंजर
 
हम सभी को बाँटते अपनी पुलक