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हम रहे वला ही गाँव के / जयराम दरवेशपुरी

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ठंढा गरमी
लहकल रउदा
बर-पीपर के छांव के
हम रहइबला ही गाँव के

घास-फूस के हमर मड़इया
नयका छप्पर चढ़ा देलूं
काटइले बरसात शान से
जुगुत पत्तर भिड़ा लेलूं
हम्मर कुटिया कम न´ बूझऽ
खूबी सरग के धाम के

रोहन के लहकल रउदा भी
कुछ न´ करतइ अखनी
तोड़ के तरबुज्जा खेते में
खा लेबइ हम जखनी
बाधे में उतरल बजार हे
भीड़ सुबह से शाम से
छठ दसहरा फाग दिवाली
जोड़इ सभे पिरितिया
ढोल मंजीरा मानर बाजइ
प्रतकाली के गितिया
अमरित बैना
बंटऽ हे घर-घर
जोड़े प्रीत तमाम के।