हम सूरज मुट्ठी में लेकर / आनन्द बल्लभ 'अमिय'
जीत कठिन है, दौर कठिन है, लेकिन मुश्किल लक्ष्य नहीं
हम सूरज मुट्ठी में लेकर, गुफा अँधेरी नापेंगे।
जर्जर तन बेकल मन की उम्मीदें गिरवी रख कर हमने,
छले हुए विश्वासों की आहें अभिमुख करनी न चाही।
यों तो कयी प्रलोभन पाये दशशीशों के सिया हरण को,
लेकिन हमने दिगबंधन कर तोड़ी हर बाधा अनचाही।
हम दो पग से लाँघ रहे हैं सप्त समुंदर बड़े जतन से
पहुँच सकें निर्बाध कुञ्ज सो क्षुधा सकल मिटवाएँगे।
अनगिन घाव सहे हमने विषसिक्त दीनता के वाणों से,
पाषाणों का हृदय सूत भर पर आंदोलित हुआ नहीं है।
फटी बिबाई, फटी ओढ़नी, एक मात्र पूँजी है अपनी,
किया होम सर्वश्व, धनाधिप फिर भी मुकुलित हुआ नहीं है।
आग उदर की बढ़ी जा रही क्षुधा बनी है दैत्य ताड़का
श्री बिन यह निर्विघ्न याग रघुवर कैसे कर पाएँगें।
विपदाओं ने कमर कसी है खड़ी कटक को लिये अटारी,
घात लगाये दुर्दिन निशिदिन खेल रहे है आँख मिचौली।
यायावर-सा रोग भयंकर घूम रहा है शहर-शहर में,
तपती मरुथल-सी दोपहरी साथ बनी है आज बिचौली।
विश्वासों की डोर थामकर आशा की मुद्रिका गिराने
बाधाओं से हमें बचाने कब तक हनुमत आएँगे।