हरिगीता / अध्याय ४ / दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'
श्रीभगवान ने कहा:
मैंने कहा था सूर्य के प्रति योग यह अव्यय महा।
फिर सूर्य ने मनु से कहा इक्ष्वाकु से मनु ने कहा॥१॥
यों राजऋषि परिचित हुए सुपरम्परागत योग से।
इस लोक में वह मिट गया बहु काल के संयोग से॥२॥
मैंने समझकर यह पुरातन योग-श्रेष्ठ रहस्य है।
तुझसे कहा सब क्योंकि तू मम भक्त और वयस्य है॥३॥
अर्जुन ने कहा:
पैदा हुए थे सूर्य पहले आप जन्मे हैं अभी।
मैं मान लूं कैसे कहा यह आपने उनसे कभी॥४॥
श्रीभगवान् ने कहा:
मैं और तू अर्जुन! अनेकों बार जन्मे हैं कहीं।
सब जानता हूँ मैं परंतप! ज्ञान तुझको है नहीं॥५॥
यद्यपि अजन्मा, प्राणियों का ईश मैं अव्यय परम्।
पर निज प्रकृति आधीन कर, लूं जन्म माया से स्वयम्॥६॥
हे पार्थ! जब जब धर्म घटता और बढ़ता पाप ही।
तब तब प्रकट मैं रूप अपना नित्य करता आप ही॥७॥
सज्जन जनों का त्राण करने दुष्ट-जन-संहार-हित।
युग-युग प्रकट होता स्वयं मैं, धर्म के उद्धार हित॥८॥
जो दिव्य मेरा जन्म कर्म रहस्य से सब जान ले।
मुझमें मिले तन त्याग अर्जुन! फिर न वह जन जन्म ले॥९॥
मन्मय ममाश्रित जन हुए भय क्रोध राग-विहीन हैं।
तप यज्ञ से हो शुद्ध बहु मुझमें हुए लवलीन हैं॥१०॥
जिस भाँति जो भजते मुझे उस भाँति दूं फल-भोग भी।
सब ओर से ही वर्तते मम मार्ग में मानव सभी॥११॥
इस लोक में करते फलेच्छुक देवता-आराधना।
तत्काल होती पूर्ण उनकी कर्म फल की साधना॥१२॥
मैंने बनाये कर्म गुण के भेद से चहुँ वर्ण भी।
कर्ता उन्हों का जान तू, अव्यय अकर्ता मैं सभी॥१३॥
फल की न मुझको चाह बँधता मैं न कर्मों से कहीं।
यों जानता है जो मुझे वह कर्म से बँधता नहीं॥१४॥
यह जान कर्म मुमुक्षपुरुषों ने सदा पहले किये।
प्राचीन पूर्वज-कृत करो अब कर्म तुम इस ही लिये॥१५॥
क्या कर्म और अकर्म है भूले यही विद्वान् भी।
जो जान पापों से छुटो, वह कर्म कहता हूँ सभी॥१६॥
हे पार्थ! कर्म अकर्म और विकर्म का क्या ज्ञान है।
यह जान लो सब, कर्म की गति गहन और महान् है॥१७॥
जो कर्म में देखे अकर्म, अकर्म में भी कर्म ही।
है योग-युत ज्ञानी वही, सब कर्म करता है वही॥१८॥
ज्ञानी उसे पंडित कहें उद्योग जिसके हों सभी।
फल-वासना बिन, भस्म हों ज्ञानाग्नि में सब कर्म भी॥१९॥
जो है निराश्रय तॄप्त नित, फल कामनाएँ तज सभी।
वह कर्म सब करता हुआ, कुछ भी नहीं करता कभी॥२०॥
जो कामना तज, सर्वसंग्रह त्याग, मन वश में करे।
केवल करे जो कर्म दैहिक, पाप से है वह परे॥२१॥
बिन द्वेष द्वन्द्व असिद्धि सिद्धि समान हैं जिसको सभी।
जो है यदृच्छा-लाभ-तृप्त न बद्ध वह कर कर्म भी॥२२॥
चित ज्ञान में जिनका सदा जो मुक्त संग-विहीन हों।
यज्ञार्थ करते कर्म उनके सर्व कर्म विलीन हों॥२३॥
मख ब्रह्म से, ब्रह्माग्नि से, हवि ब्रह्म, अर्पण ब्रह्म है।
सब कर्म जिसको ब्रह्म, करता प्राप्त वह जन ब्रह्म है॥२४॥
योगी पुरुष कुछ दैव-यज्ञ उपासना में मन धरें।
ब्रह्माग्नि में कुछ यज्ञ द्वारा यज्ञ ज्ञानी जन करें॥२५॥
कुछ होंमते श्रोत्रादि इन्द्रिय संयमों की आग में।
इन्द्रिय-अनल में कुछ विषय शब्दादि आहुति दे रमें॥२६॥
कर आत्म-संयमरूप योगानल प्रदीप्त सुज्ञान से।
कुछ प्राण एवं इन्द्रियों के कर्म होमें ध्यान से॥२७॥
कुछ संयमी जन यज्ञ करते योग, तप से, दान से।
स्वाध्याय से करते यती, कुछ यज्ञ करते ज्ञान से॥२८॥
कुछ प्राण में होमें अपान व प्राणवायु अपान में।
कुछ रोक प्राण अपान प्राणायाम ही के ध्यान में॥२९॥
कुछ मिताहारी हवन करते, प्राण ही में प्राण हैं।
क्षय पाप यज्ञों से किये, ये यज्ञ-विज्ञ महान् हैं॥३०॥
जो यज्ञ का अवशेष खाते, ब्रह्म को पाते सभी।
परलोक तो क्या, यज्ञ-त्यागी को नहीं यह लोक भी। ४। ३१॥
बहु भाँति से यों ब्रह्म-मुख में यज्ञ का विस्तार है।
होते सभी हैं कर्म से, यह जान कर निस्तार है॥३२॥
धन-यज्ञ से समझो सदा ही ज्ञान-यज्ञ प्रधान है।
सब कर्म का नित ज्ञान में ही पार्थ! पर्यवसान है॥३३॥
सेवा विनय प्रणिपात पूर्वक प्रश्न पूछो ध्यान से।
उपदेश देंगे ज्ञान का तब तत्त्व-दर्शी ज्ञान से॥३४॥
होगा नहीं फिर मोह ऐसे श्रेष्ठ शुद्ध विवेक से।
तब ही दिखेंगे जीव मुझमें और तुझमें एक से॥३५॥
तेरा कहीं यदि पापियों से घोर पापाचार हो।
इस ज्ञान नय्या से सहज में पाप सागर पार हो॥३६॥
ज्यों पार्थ! पावक प्रज्ज्वलित ईंधन जलाती है सदा।
ज्ञानाग्नि सारे कर्म करती भस्म यों ही सर्वदा॥३७॥
इस लोक में साधन पवित्र न और ज्ञान समान है।
योगी पुरुष पाकर समय पाता स्वयं ही ज्ञान है॥३८॥
जो कर्म-तत्पर है जितेन्द्रिय और श्रद्धावान् है।
वह प्राप्त करके ज्ञान पाता शीघ्र शान्ति महान् है॥३९॥
जिसमें न श्रद्धा ज्ञान, संशयवान डूबे सब कहीं।
उसके लिये सुख, लोक या परलोक कुछ भी है नहीं॥४०॥
तज योग-बल से कर्म, काटे ज्ञान से संशय सभी।
उस आत्म-ज्ञानी को न बांधे कर्म बन्धन में कभी॥४१॥
अज्ञान से जो भ्रम हृदय में, काट ज्ञान कृपान से।
अर्जुन खड़ा हो युद्ध कर, हो योग आश्रित ज्ञान से॥४२॥
चौथा अध्याय समाप्त हुआ॥४॥