हरिगीता / अध्याय ५ / दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'
अर्जुन ने कहा:
कहते कभी हो योग को उत्तम कभी संन्यास को।
के कृष्ण! निश्चय कर कहो वह एक जिससे श्रेय हो॥१॥
श्रीभगवान् ने कहा --
संन्यास एवं योग दोनों मोक्षकारी हैं महा।
संन्यास से पर कर्मयोग महान् हितकारी कहा॥२॥
है नित्य संयासी न जिसमें द्वेष या इच्छा रही।
तज द्वन्द्व सुख से सर्व बन्धन-मुक्त होता है वही॥३॥
है ' सांख्य' ' योग' विभिन्न कहते मूढ़, नहिं पण्डित कहें।
पाते उभय फल एक के जो पूर्ण साधन में रहें॥४॥
पाते सुगति जो सांख्य-ज्ञानी कर्म-योगी भी वही।
जो सांख्य, योग समान जाने तत्व पहिचाने सही॥५॥
निष्काम-कर्म-विहीन हो, पान कठिन संन्यास है।
मुनि कर्म-योगी शीघ्र करता ब्रह्म में ही वास है॥६॥
जो योग युत है, शुद्ध मन, निज आत्मयुत देखे सभी।
वह आत्म-इन्द्रिय जीत जन, नहिं लिप्त करके कर्म भी॥७॥
तत्त्वज्ञ समझे युक्त मैं करता न कुछ खाता हुआ।
पाता निरखता सूँघता सुनता हुआ जाता हुआ॥८॥
छूते व सोते साँस लेते छोड़ते या बोलते।
वर्ते विषय में इन्द्रियाँ दृग बन्द करते खोलते॥९॥
आसक्ति तज जो ब्रह्म-अर्पण कर्म करता आप है।
जैसे कमल को जल नहीं लगता उसे यों पाप है। ५। १०॥
मन, बुद्धि, तन से और केवल इन्द्रियों से भी कभी।
तज संग, योगी कर्म करते आत्म-शोधन-हित सभी॥११॥
फल से सदैव विरक्त हो चिर-शान्ति पाता युक्त है।
फल-कामना में सक्त हो बँधता सदैव अयुक्त है॥१२॥
सब कर्म तज मन से जितेन्द्रिय जीवधारी मोद से।
बिन कुछ कराये या किये नव-द्वार-पुर में नित बसे॥१३॥
कतृत्व कर्म न, कर्म-फल-संयोग जगदीश्वर कभी।
रचता नहीं अर्जुन! सदैव स्वभाव करता है सभी॥१४॥
ईश्वर न लेता है किसी का पुण्य अथवा पाप ही।
है ज्ञान माया से ढका यों जीव मोहित आप ही॥१५॥
पर दूर होता ज्ञान से जिनका हृदय-अज्ञान है।
करता प्रकाशित ' तत्त्व' उनका ज्ञान सूर्य समान है॥१६॥
तन्निष्ठ तत्पर जो उसी में, बुद्धि मन धरते वहीं।
वे ज्ञान से निष्पाप होकर जन्म फिर लेते नहीं॥१७॥
विद्याविनय-युत-द्विज, श्वपच, चाहे गऊ, गज, श्वान है।
सबके विषय में ज्ञानियों की दृष्टि एक समान है॥१८॥
जो जन रखें मन साम्य में वे जीत लेते जग यहीं।
पर ब्रह्म सम निर्दोष है, यों ब्रह्म में वे सब कहीं॥१९॥
प्रिय वस्तु पा न प्रसन्न, अप्रिय पा न जो सुख-हीन है।
निर्मोह दृढ-मति ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म में लवलीन है॥२०॥
नहिं भोग-विषयासक्त जो जन आत्म-सुख पाता वही।
वह ब्रह्मयुत, अनुभव करे अक्षय महासुखनित्य ही॥२१॥
जो बाहरी संयोग से हैं भोग दुखकारण सभी।
है आदि उनका अन्त, उनमें विज्ञ नहिं रमते कभी॥२२॥
जो काम-क्रोधावेग सहता है मरण पर्यन्त ही।
संसार में योगी वही नर सुख सदा पाता वही॥२३॥
जो आत्मरत अन्तः सुखी है ज्योति जिसमें व्याप्त है।
वह युक्त ब्रह्म-स्वरूप हो निर्वाण करता प्राप्त है॥२४॥
निष्पाप जो कर आत्म-संयम द्वन्द्व-बुद्धि-विहीन हैं।
रत जीवहित में, ब्रह्म में होते वही जन लीन हैं॥२५॥
यति काम क्रोध विहीन जिनमें आत्म-ज्ञान प्रधान है।
जीता जिन्होंने मन उन्हें सब ओर ही निर्वाण है॥२६॥
धर दृष्टि भृकुटी मध्य में तज बाह्य विषयों को सभी।
नित नासिकाचारी किये सम प्राण और अपान भी॥२७॥
वश में करे मन बुद्धि इन्द्रिय मोक्ष में जो युक्त है।
भय क्रोध इच्छा त्याग कर वह मुनि सदा ही मुक्त है॥२८॥
जाने मुझे तप यज्ञ भोक्ता लोक स्वामी नित्य ही।
सब प्राणियों का मित्र जाने शान्ति पाता है वही॥२९॥
पांचवा अध्याय समाप्त हुआ॥५॥