भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

91 से 100 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पद 97 से 98 तक

(97)
 
जौं पे हरि जनके औगुन गहते।
तौ सुरपति कुरूराज बालिसों कत हठि बैर बिसहते। 1।

जैा जप जाग जोग ब्रत बरजित, केवल प्रेम न चहते।
तौं कत सुर मुनिबर बिहाय ब्रज, गोप -गेह बसि रहते।2।

जौं जहँ-तहँ प्रन राखि भगतको ,भजन-प्रभाउ न कहते।
तौ कलि कठिन करम-मारग जड़ हम केहि भाँति निबहते। 3।

 जौ सुतहित लिये नाम अजामिलके अघ अमित न दहते।
तैा जमभट साँसति-हर हमसे बृषभ खोजि खेाजि नहते।4।

जौ जगबिदित पतितपावन, अति बाँकुर बिरद न बहते।
तौ बहुकलम कुटिल तुलसीसे, सपनेहुँ सुगति न लहते।5।

(98)

ऐसी हरि करत दासपर प्रीति।
निज प्रभुता बिसारि जनके बस, होत सदा यह रीति। 1।

 जिन बाँधे सुर-असुर, नाग-नर, प्रबल करमकी डोरी।
सेाइ अबिछिन्न ब्रह्म जसुमति हठि बाँध्यो सकत न छोरी।2।

जाकी मायाबस बिरंचि सिव नाचत पार न पायो।
करतल ताल बजाय ग्वाल-जुवतिन्ह सोइ नाच नचायो।3।

बिस्वंभर,श्रीपति,त्रिभुवनपति, बेद-बिदित यह लीख।
बलिसों कछु चली प्रभुता बरू ह्वै द्विज माँगी भीख। 4।

जाको नाम लिये छूटत भव जनम मरन दुख भार।
अंबरीष-हित लागि कृपानिधि सोइ जनमें दस बार।5।

जोग-बिराग, ध्याान -जप-तप-करि, जेहिं खोजत मुनि ग्यानी।
बानर-भालु चपल पसु पामर, नाथ तहाँ रति मानी।6।

लोकपाल, जम, काल, पवन, रबि, ससि सब आग्याकारी।
तुलसिदास प्रभु उग्रसेन के द्वार बेंत कर धारी।7।