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अंधेरे में सूत्रधार / प्रताप सहगल

मंच पर पूरा अंधेरा है
स्पॉट लाइट्स काम नहीं कर रहीं
कुछ प्रकाश-कण तैरते नज़र आते हैं
जुगनुओं की तरह नहीं हैं
यह प्रकाश-कण।

सूत्रधार अंधेरे में खड़ा है
दर्शकों के सामने
दर्शक सांस थामे बैठे हैं
नाटक की इंतज़ार में
नाटक बस शुरू होने ही वाला है
नाटक के सूत्र
उलझे हुए हैं
सूत्रधार के हाथों में।

सूत्रधार के हाथों
सूत्र-गांठें खुलनी ही चाहियें .
कठपुतली से पात्र
आने ही चाहियें
मंच पर।

दर्शक-दीर्घा से आती हवाएं
कह रही हैं
खुलनी ही चाहियें गांठें
पूरे नाटक की।

नाटक शुरू होने ही वाला है
नेपथ्य से आ रही हैं आवाज़ें
नाटक शायद वहीं हो रहा है
दर्शक-दीर्घा और नेपथ्य के बीच
अंधेरे में डूबा मंच है
और सूत्रधार खुद अंधेरे में खड़ा
नाटक के सूत्र खोज रहा है
अंधेरे में सूत्रधार
कितना बड़ा विदूषक लगता है।