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अकेली पृथ्वी / कजाल अहमद / जितेन्द्र कुमार त्रिपाठी

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न तो ब्रह्माण्ड के श्वेत निकाय
उसे सुप्रभात कहते हैं
न ही हस्तनिर्मित तारे
उसे चूमते हैं

पृथ्वी —
कहाँ हैं
वे सारे गुलाब
उत्तम भाव रहित दफ़्न
जो मर-मिटे
मेरी झलक और ख़ुशबू के लिए ?

ये मटमैली गेंद अकेली है
इतनी अकेली कि
जैसे ही वह देखती है
चाँद का पैबन्द पहनावा
वह जान जाती है —
सूरज बहुत बड़ा चोर है
जो जलता है
असंख्य किरणों के साथ,
जो उसने संग रखी हैं
ख़ुद के लिए
और जो देखता है
चाँद और पृथ्वी को
एक किराएदार की तरह ।