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अच्छा! सच में? / सुषमा गुप्ता

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क्या तुम्हें याद है
मैंने कल की पूरी सुबह तुम्हें दे दी थी
मेरे चेहरे की सारी लाल रंगत तुमने शायद एक घूँट में गले से नीचे उतार ली थी
मेरी आँखों में जो कुछ ख्वाबों के कतरे थे
तुमने अपनी अँगुलियों के पोरों से चुन लिए थे।

क्या तुम्हें याद रहा
चंद अँगूठियों की गिनती कितनी लम्बी हो गई थी हमारे बीच।
इतनी कि
पूरी एक मुलाकात का घेरा
हर अँगूठी के बीच से निकलते हुए ठहर गया था।

तुम्हें वह लम्हा तो याद ज़रूर रह गया होगा
जब तुम्हारी हथेली की महीन लकीरें तुमने मेरी आँखों से चंद दूरी पर टाँग दी थी
रिवायत तो छूने और शरमाने की थी
पर मैं शरमाना भूल कर उनमें अपना पता ढूँढने लगी थी।

अच्छा चलो छोड़ो।
कम से कम इतना तो याद यकीनन होगा तुम्हें,
वो कल जो सूरज तुमने मुठ्ठी में बंद कर लिया था,
मेरा दिन वहीं रुक गया है।

अपने देश से जब भी लौटो मेरा सूरज भी लेते आना।
बहुत बरस बीत गए अँधेरा टटोलते।

प्रेम क्षणिक नहीं होते।
प्रेम बस उसी एक पल की मिल्कियत नहीं होते जिस पल में साँस लेते हैं।
प्रेम आगे और पीछे के अंतरनहीं समझते
प्रेम समयचक्र कालचक्र अधीननहीं होते
प्रेम को चैनालाइज़ नहीं किया जा सकता।

तुम्हें सोचना चाहिए तुम्हें प्रेम है?