Last modified on 1 सितम्बर 2012, at 22:18

अपलक जगती हो एक रात / जयशंकर प्रसाद

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:18, 1 सितम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKRachna |रचनाकार=जयशंकर प्रसाद |संग्रह=लहर / जयशंकर प्र...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अपलक जगती हो एक रात!
      सब सोये हों इस भूतल में,
      अपनी निरीहता संबल में,
             चलती हों कोई भी न बात!
      पथ सोये हों हरयाली में,
      हों सुमन सो रहे डाली में,
             हों अलस उनींदी नखत पाँत!
      नीरव प्रशांत का मौन बना ,
      चुपके किसलय से बिछल छना;
             थकता हों पंथी मलय- वात.
      वक्षस्थल में जो छुपे हुए-
      सोते हों ह्रदय अभाव लिए-
             उनके स्वप्नों का हों न प्रात.