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अब न रहे वो रूख / नईम

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लेखक: नईम

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अब न रहे वो रूख कि जिन पर,

पत्ते होते थे।

फूलों, कोंपल आंखें,

शहद के छत्ते होते थे।


उखड़े-उखड़े खड़े अकालों आए नहीं झोंके

आते थे जो काम हमारे मौके बेमौके

जिनकी छांव बिलमकर हम तुम

सपने बोते थे।


क्या होंगे पत्ते फूलों औ' फुनगी शाखों से?

मौन प्रार्थनारत हैं वो मिलने को राखों से।

रहे नहीं अब रैन-बसेरा

मैना तोते के।


आंखों के बीहड़ सूखे ने सुखा दिया जड़ से,

इस सामान्यों की क्या तुलना पीपल औ बड़ से

नहीं रहे कंधे जिनसे लग के

दुखड़े रोते थे

अब न रहे वो रूख कि जिन पर

पत्ते होते थे