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अश्क़ बन आँख से ढलना होगा / रंजना वर्मा

अश्क़ बन आंख से ढलना होगा
आग में अपनी ही जलना होगा

जख़्म हर अपना हरा करना है
मोमबत्ती सा पिघलना होगा

दिल मे जो दर्द जमा पत्थर सा
आह की आंच से गलना होगा

वक्त रहते जो चेत जाओगे
सिर्फ हाथों को न मलना होगा

है दरख़्तों का बसेरा न यहाँ
रेत की छांव में पलना होगा

फूल खुशकिस्मतों को मिलते हैं
हम को काँटों में भी चलना होगा

अब मसर्रत की कोई बात न कर
जश्न हर शाम में ढलना होगा