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आतुर मैं अत्यन्त सदा तुमसे / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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आतुर मैं अत्यन्त सदा तुमसे मिलने को रहता।
मन की बात किसी से पर मैं कभी नहीं कुछ कहता॥
मेरी वह आत्यन्तिक आतुरता आकर्षित करती।
तुमको तुरत खींचकर मेरे तन-मनमें है भरती॥
भीतर-बाहर तुम्हें प्राप्तकर मैं निहाल हो जाता।
मधुमय स्पर्श तुहारा पाकर मेरा ‘मैं’ खो जाता॥
रह जाती हो एक तुम्हीं अपनी ही महिमा लेकर।
मुझे मिला लेती अपनेमें अपना सब कुछ देकर॥
हो जाते हम एक उसी क्षण, पृथक्‌ भान मिट जाता।
अतुल, अनिर्वचनीय, अचिन्त्यानन्त प्रेम छा जाता॥
किससे कौन मिले हैं, किसके कौन प्रिया-प्रियतम हैं?
जान नहीं पाते, कह पाते नहीं, कौन तुम-हम हैं?
सदा एक थे, सदा एक हैं, एक सदैव रहेंगे।
नहीं सुनेंगे कभी किसी की, कुछ भी नहीं कहेंगे॥