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आसमान से मेरा रिश्ता / योगेंद्र कृष्णा

बिजली के गुल होते ही

आसमान में उगे उस तारे में

मेरी भरी पूरी दुनिया

टिमटिमाती लौट आई थी

जो बिजली की जगमग

और महानगरीय शोर में

मुद्दत से खोई थी

मैं उस दुनिया में लौट रहा था

तारे की टिमटिमाती रौशनी में

अपनी दुनिया में लौटने के पहले की

दुनिया समेट रहा था

कि अचानक बिजली की चकाचौंध

और मशीनों के शोर से

तारों का टिमटिमाना मना हो गया

बाहर चारों तरफ

जगमग एक दुनिया थी

अनर्गल एक शोर था

भीतर दूर-दूर तक पसरा

स्याह अंधेरा

और गहरा एक मौन था

जगमग इस दुनिया में

वर्तमान को जीने की आदिम एक होड़ थी

मानव शृंखलाओं की नंगी देह से गुजरती

गर्म कोलतार की सड़कें थीं

जिनपर चल कर

एक-दूसरे से आगे निकल जाने की

कवायद में

कैलेंडर की तारीखें

वे उल्टी दिशा में पलटते थे

अपने भीतर के कोने में

दुबके आदमी को

बेरहमी से बाहर घसीटते थे

और जंगली जानवरों की कतार में

उन्हें खूंटे से बांधते थे...

रोज-रोज ऐसा करने के बाद भी

उनके आदमी

जानवरों से थोड़े अलग थे

इसलिए वे चीखते चिल्लाते थे

अपने सर पांव धरती पर पटकते थे...

धरती जब फटती थी

तो गर्म लहू के छींटे

आसमान पर बरसते थे

ऐसे में मेरा वह तारा

अचानक छूट गया

आसमान से मेरा रिश्ता

हमेशा के लिए टूट गया