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एक औरत का अपने बारे में सोचना / गायत्रीबाला पंडा / राजेंद्र प्रसाद मिश्र

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सोचती थी कि माँ से पुछूँगी
अपने जीवन में एक औरत
अपने बारे में कब सोचती है!

मछली काटते-काटते पंसुली से कते
अंगूठे से बहने लगती है खून की धार
वह सोचती, सुबह पहर
याद नहीं आया पति की शर्ट में
टूटा बटन लगाना
वह सोचती, बगीचे में
सहजन के पेड़ में निकले नए फूलों
और अमृतदान में फफून्दें
बेर का अचार धूप में सूखने की बात.

साँझ ढलने पर वह हड़बड़ाने लगती है
छत पर धूप में सूखती बड़ियाँ
लाकर नीचे कमरे में रखने को
साँझ बीत जाने के भय से
बाती सजाती है
ठाकुर-घर में, तुलसी चौरे पर
वह सोचती है रात को क्या पकाएगी
जेठ की बेटी को दावत जो दी है मँगनी के बाद.

एक औरत कब
अपने बारे में सोचती है
सोचती थी पुछूँगी माँ से
क्योंकि जब मैं कुँवारी थी
सोचने को बहुत कुछ था मेरे पास
परीक्षा में आने वाले प्रश्न
झड़ते बालों की देख-भाल
त्वचा में चमक लाने के लिए
नई प्रसाधन सामग्री
इत्यादि के बारे में.

तब नहीं जानती थी
एक औरत क्यों नहीं सोच सकती है
अपने बारे में कभी
जबकि दुनिया में
बहुत-सी बातें होती हैं
सिर्फ़ अपने हीं बारे में जानने की.

निस्संग समय में पलक झपकने-सा है
मेरा वर्तमान
तमाम वर्तमान की उसाँसों में है
मेरी माँ, वही औरत
उसके मुस्कुराते रहने का
सर्वश्रेष्ठ निश्छल अभिनय
अपने अंदर अपनी उपस्थिति को
पसीने की गंध सा
ढोते रहे हैं
उसकी उम्र के गली-गलियारे
जहाँ से टकराकर लौट आती है
मेरी सारी भावनाएँ
और मैं हो जाती हूँ चकनाचूर.

और पूरी ज़िंदगी में
अगर एक भी बूँद आँसू बहाती है
वह औरत
किसी के देखने से पहले
क्यों हड़बड़ाकर पोंछ लेती है उसे

सोचती थी, पुछूँगी माँ से!