Last modified on 20 दिसम्बर 2009, at 20:22

एक दुनिया समानांतर / शलभ श्रीराम सिंह

विज्ञापनों के बाहर भी
एक दुनिया है बच्चों की
उदास औए मायूस।

विज्ञापनों के बाहर भी
एक दुनिया है टाँगों और बाँहों की
काँपती और थरथराती हुई।

विज्ञापनों के बाहर भी
एक दुनिया है आवाज़ों की
लरजती और घुटती हुई।

विज्ञापनों के बाहर भी
एक दुनिया है सपनो की
बेरौनक और बदरंग।

रचनाकाल : 1991, नई दिल्ली