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एक नदी की कहानी / अवतार एनगिल

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उन दिनों
किसनपुरा के करीब
एक निरंतर निनादित नदी रहती थी
मन की मौज में
कार्तिक की गुनगुनी धूप ओढ़कर
बाँस के जंगल
संग-संग बहती थी

पारदर्शी पानी में
दिप-दिप जगमाते
नीले.. हरे .. कत्थई पत्थर बिखेरते
सुनहरी धूप के सैंकड़ों दुखद रंग

किनारों पर
कभी-कभार
घूमते दिख जाते मछुआरे

डालते जाल

खींचते, तरल आँखों वाली
सुनहली मछलियाँ

धीरे-धीरे
बढ़ी भूख़
गहरे काले जल मे
बिछने लगा बारूद
और ... धमाकों के बाद
तिकोने कटाव वाले “रोके” पर
लूटी जाने लगीं
डब-डब आँखों वाली
मरी जलपरियाँ
जिस दिन बारूद लगता
गाँव भर में
उतसाह का माहौल रहता
पास के कस्बे में
गिर जाते
मच्छी के भाव
देखते-देखते
नदी के उजले माथे पर
मैला उतरने लगा
सिकुड़ने लगे
उसके पाट
निर्जन हुए घाट

नदी के पेट में
भीतर-ही-भीतर
ढोल-सा
लुड़कने लगा
तैज़ाबी मलवा

गाँव अब भी वही है
वही है नदी
अंतर बस इतना है—
अब वह शोर नहीं मचाती
अब वह गीत नहीं गाती
बुद-बुद बहती है
चुप-चाप रहती है
किसनपुरा गाँव के पास
एक नदी