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एक बूँद स्याही / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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बह रहा मेरे अंदर
बड़ा ताल, छोटा ताल
अब टपका कि अब सूखा
गया था अपनी मशाल जलाने
लौटा खुद को जलाकर
हवा में अभी भी गंध मानुषी
चीखें ठहरी हुईं
समय के फ्रेम में
कैसे उठाता इतना दुख अपनों का
बस बसा लिया
अपने अंदर सूखता ताल
पानी के लिए तरसतीं जुबानें
हवा ने कौन-सी
उम्र देखनी थी
देखना था क्या गरीब?
क्या अमीर?
बस बह चली
एक तरफ से हवा
जहरीली हवा
वृक्ष-वृक्ष चिल्लाया
पहाड़, पठार-चिल्लाया
हवा-जहरीली हवा
क्या करते?
कहाँ तक भागते?
क्या हवा से भी आगे?
क्या हवा से भी तेज?
बहुत दूर थी दिल्ली
कानून की लंबी बाँहें
थामने के लिए और भी दूर
क्या आश्यर्च?
सिकुड़ गयी बाँहें
घुस गयी जेबों में
थपथपाकर अपनी पीठ
निकाली दमड़ी एक
फेंक दी निराश्रितों, निहत्थों, निरुपायों के आगे
लुंज-पुंज जिनके हाथ
खो चुके थे जो रोशनी
कहाँ से उठाते
वो दमड़ी भी
खो गयी जो धूल में
बहुत कटे-फटे पुराने
अपनी किस्मत के कागज
उठाये फिरते हैं अंधकार में पढ़ो,
उनकी टूटी-फूटी इबारत पढ़ो
पढ़ो,
उनकी किस्मत की ठोकरों को
कैद करे
हवा-जहरीली हवा
निकालो अपने हाथ
अपनी जेबों से
लिखो कोई इबारत
कि अंधकार में रोशनी हो जाये
चल पड़ें लूले-लँगड़े
अंधे को दिखाई देने लगे
लिखो-लिखो
कोई तो इबारत
कि भूखों को खाना मिले
चाहे एक बूँद स्याही ही सही
कि जी पायें आत्मायें भी
इस काली नदी में।