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एक साग़र भी इनायत न हुआ याद रहे / बृज नारायण चकबस्त

एक साग़र भी इनायत न हुआ याद रहे ।

साक़िया जाते हैं, महफ़िल तेरी आबाद रहे ।।


बाग़बाँ दिल से वतन को यह दुआ देता है,

मैं रहूँ या न रहूँ यह चमन आबाद रहे ।


मुझको मिल जाय चहकने के लिए शाख़ मेरी,

कौन कहता है कि गुलशन में न सय्याद रहे ।


बाग़ में लेके जनम हमने असीरी झेली,

हमसे अच्छे रहे जंगल में जो आज़ाद रहे ।