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और किसी ने लूटी थी, या खुद मैं ने ही लूटी थी / विजय 'अरुण'

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और किसी ने लूटी थी, या खुद मैं ने ही लूटी थी
मेरी लुटी हुई दुनिया की हर सच्चाई झूटी थी।

क्या सूरज थम गया वहीं पर, होता नहीं उजाला क्यों
घड़ियों पहले तो देखा था आस किरण-सी फूटी थी।

ठीक रास्ता नहीं लिया तो देर से पहुंचा मंज़िल पर
पथरीले छोटे रस्ते से मेरी किस्मत फूटी थी।

भाग्य बुरा था फिर भी मैंने मेहनत से मंज़िल पाई
मेरी सांस नहीं टूटी थी, भाग्य की रेखा टूटी थी।

जनमानस बेहोश पड़ा है, कोई तो औषध लाओ
अब भी तो मिलती ही होगी जो संजीवन बूटी थी।

वो ख़ुश हुआ कि नाख़ुश, मैं कुछ समझ नहीं पाया यारो
देख के मुझ को दीवाने ने अपनी छाती कूटी थी।

सम्बल संचित करते-करते हुआ विलम्ब 'अरुण' को आज
उस को था जिस नाव से जाना, अभी-अभी वह छूटी थी।