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कटी पतंग / सिद्धेश्वर सिंह

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झील के ठहरे जल की सतह पर
एक नाव होती थी - साधारण
उसमें सवार एक युगल
एक दूसरे की आँखों में देखता था प्रेम
जिस गली में नहीं होता था बालमा का घर
उस गली में पाँव धरना भी होता था गुनाह।

तब झील को जरूरत नहीं थी
कृत्रिम श्वास की
तब रंगीन लगती थीं श्वेत श्याम तस्वीरें
और किताबों के बीच चुपके से रखे गए सूखे फूल
बोसीदा कमरे में भर में भर देते थे सुगन्ध।

वह कोई दूसरा समय था
इतिहास का एक बनता हुई कालखंड
समय की खराद पर
उसी में ढलना था सबका जीवन।

भाप बनकर उड़ गए सुगंध के बादल
और उमड़ते - घुमड़ते - बरसते रहे
जहाँ जिस ओर ले गई बयार।

झील के ऊपर
अब भी मँडराती हैं
ढेर सारी कटी पतंगे
तलाशती हुईं अपनी डोरियाँ
अपनी लटाइयाँ
और अपने - अपने हिस्से का आकाश।