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कुँद की कली सी दँत पाँति कौमुदी सी दीसी / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

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कुँद की कली सी दँत पाँति कौमुदी सी दीसी ,
बिच बिच मीसी रेख अमीसी गरकि जात ।
बीरी त्योँ रची सी बिरची सी लखै तिरछी सी ,
रीसी अँखियाँ वै सफरी सी त्योँ फरकि जात ।
रस की नदी सी दयानिधि की न दीसी थाह ,
चकित अरी सी रति डरी सी सरकि जात ।
फँद मे फँसी सी भरि भुज मे कसी सी जाकी ,
सी सी करिबे मे सुधा सीसी सी ढरकि जात ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।