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कैसे हो पार कश्ती घबरा के मर न जाऊँ / डी. एम. मिश्र

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कैसे हो पार कश्ती घबरा के मर न जाऊँ
तूफ़ान में घिरा हूँ ग़श खा के मर न जाऊ

ख़ुद को समझ रहा था सबसे बड़ा खिवैया
मौला मुआफ़ कर दे शरमा के मर न जाऊँ

महसूस हो रहा है बारूद पर खड़ा हूँ
अपने हसीन सपने दफ़ना के मर न जाऊँ

बरसों से आस्तीं में इक साँप पल रहा था
यह सोचकर कहीं मैं पछता के मर न जाऊँ

महफ़िल में क़हक़हों की आ तो गया हूँ लेकिन
हँसने की आरज़ू में मुस्का के मर न जाऊँ

कैसे उतार दूँ मैं यह मुफ़लिसी की चादर
ख़ाली है पेट मेरा दिखला के मर न जाऊँ

कितने मज़े में था मैं, अच्छी थी वह ग़रीबी
थोड़ी सी पा के दौलत इतरा के मर न जाऊँ

दीदार चाहता हूँ जलवों का तेरे मैं भी
डर है कि तेरे दर पे मैं आ के मर न जाऊँ